चंद्रकांति
इक हरे भरे बगियान में,
जहाँ केसर कस्तूरी कुसुम,
कुछ गहरे लाल जैसे –
नई बयाही दुल्हन की मांग में भरा सिंधूर् ,
कुछ लंबी अकडू बेलें,
दीवारों को मापती हुई!
और नर्म हरी घास ;
शृंगार को पूर्ण करती हुई!
जहाँ सब व्यस्त हैं!
फुदकती तितलियों से बतलाने को!
जहाँ सब व्यस्त है !
भवरों से लाड़ लड़ाने को!
उस हरे भरे बगियान में ;
इक चंद्रकांति अकेला रहता है!
सफेद रूप को माने जो श्राप!
बस चाँद ही है जिसका यार!
देख कर वो सूरज को,
मुँह सिकोड़ सा लेता है!
न उस मुख को बुलाये कोई तितली ;
न कोई उसका रस पान करे!
दिन जो बना है उसका दुश्मन,
बस वो रात का इंतज़ार करे!
आती रतिया वो खिल जाए!
प्रिय जो दीद दिखलाये!
इक सुकून की सांस वो लेता है!
वो दिन भर अकेला रहता है!
रातों को प्रेम में बहता है!
उसके साथी भद्दे फतिंगे
भवरों से उसका क्या लेना है?
जुगनू करते उसकी रखवाली!
उसे सूरज की किरणों से क्या लेना है?
गीत सुनाता उल्लू उसे अपने !
उसे तितलियों से अब क्या कहना है!
बस एक रकीब वो चकोर उसका!
नज़र में लिए चाँद को है!
न जाने कब उड़ जाए उस तरफ़!
जलन सी उसे उस प्यार से है!
फिरसे जो आया है सूरज
करने उसका दिन बर्बाद!
वो मुरझाया मुँह सिकोड़ कर
रगों में उसके इंतज़ार
आये फिर कुछ बाल फुर्तीले
बगिया के रंगों पर मोह गए!
तोड़ दिये सब लाल पीले!
उस मुरझाये को वैसे ही छोड़ गए!
टूट गया उन रंगों का अभिमान!
वर उसे वो श्राप लगे!
अकेली पड़ गयीं तितलियाँ सारी!
अब वो भी किस से बात करे!
अकेला था वो अकेला रह गया!
सूरज ढलने का इंतज़ार करे!
करेगा ज़ाहिर चाँद से सब
वो चंद्रकांति जो उससे प्यार करे!
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